श्री कृष्ण जन्माष्टमी – महोत्सव विशेष

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

(गीता अध्याय 4 का श्लोक 7 एवम 8)

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श्री कृष्णा

भावार्थ:

जब जब इस धरती पर धर्म की हानि होती है, जब जब अधर्म बढता है तब तब धर्म की रक्षा हेतु मैं स्वयं मानव रूप में प्रकट होता हूँ । सज्जन लोगों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए मैं आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं ।

द्वापर युग में श्री हरि विष्णु जी ने 8वें अवतार श्री कृष्ण भगवान के रूप में इस धरती पर जन्म लिया था।
हिंदी माह भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी को रात्रि 12 बजे श्री कृष्ण जी का जन्म हुआ था और प्रतिवर्ष पुरे भारत और विश्व में भी श्री कृष्ण जन्माष्टमी बड़े ही धूम धाम से मनाई जाती है। आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं।

आज इस शुभ दिन पर भगवान् श्री कृष्ण के रंग में कृष्णमय हो जाते हैं । श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही मनुष्य के लिए मार्ग दर्शन है । श्री कृष्ण एक धर्म रक्षक , कर्मयोगी के रूप में और त्याग व् समर्पण, अनंत प्रेम , मित्रता सिखाने वाला उनका चरित्र हम सभी के लिए सर्वोच्च आदर्श रूप है।

आइये प्रभु श्री कृष्ण के जीवन को स्मरण करते हैं उनसे जुडी कुछ घटनाओं द्वारा:

(क)

कृष्ण नाम का अर्थ होता हैं आकर्षित करने वाला (attractive) , श्री कृष्ण अपने नटखट शरारती स्वाभाव , मनमोहक रूप से सभी मथुरा वासियों के प्रिय थे। संकट के समय में अपने मित्रों के सहायक के रूप में वह अपने मित्रों में लोकप्रिय थे। उनकी मधुर बांसुरी की धुन इतनी मनमोहक थी कि गोपियाँ और गायें भी उनसे अत्यंत स्नेह करती थी । श्री कृष्ण सदैव प्रेम बाँटना सिखाते है; प्रकृति का नियम है कि, जो भी हम देंगे वह हमारे पास कई गुना होकर वापस गौटेगी । ध्यान दें, हम जीवन में सदैव सकारात्मक रहें व् सभी में प्रेम भाव बांटे ।

(ख)

राधे कृष्ण राधे कृष्ण..कृष्ण राधे क्यों नहीं!!
राधा जी कृष्ण जी की अत्यंत प्रिय गोपी एवं श्री कृष्ण जी का प्रेम या मनुष्य जीवन के लिए प्रेम की परिभाषा ।

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राधे कृष्ण


प्रेम क्या है ? प्रेम अनंत है, प्रेम विश्वास है, प्रेम समर्पण है। श्री कृष्ण के प्रति अनंत व् समर्पित प्रेम की वजह से ही कृष्णा जी को राधा जी स्वयं से भी अधिक प्रिय थी; इसीलिए सदैव राधे जी का नाम कृष्ण जी के पहले लिया जाता है । परन्तु कृष्ण जी राधा जी को छोड़कर मथुरा से सदा के लिए चले गए थे क्यों ? क्योकि उनके जीवन के अन्य कर्तव्यों को पूरा करने व् धर्म की रक्षा हेतु उनका मथुरा से जाना अत्यंत आवश्यक था । फिर पुनः राधा जी से श्री कृष्ण जीवन पर्यन्त कभी नहीं मिले । श्री कृष्ण यहां सिखाते है, जीवन में कर्तव्य व् धर्म का पालन सर्वोपरि है ।

(ग)

मथुरावासियों को इंद्र देव के प्रकोप से बचाने के लिए श्री कृष्ण ने अपनी छोटी ऊँगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था । मथुरावासियों की रक्षा की व् इंद्र देव के घमंड को तोड़ दिया । यहां श्री कृष्ण हमे यह सिखाते हैं कि बुरी स्थिति में स्वयं को दृणसंकल्पी बनाते हुए हमे प्रतिनिधि के रूप में आगे आकर समस्या का निवारण करना चाहिए ।

(घ)

कालिंदी नदी में जब कालिया नाग के वास के कारण सम्पूर्ण जल जहरीला हो गया था तब श्री कृष्ण ने कालिया नाग का वध कर मथुरावासियों की रक्षा की व् कालिंदी नदी को विषहीन कर दिया । प्रकृति ईश्वर का उपहार होती है; पेड़ पौधे, नदिया और झरने सभी हमारे लिए होते हैं अतः हमे सदैव इनकी रक्षा करनी चाहिए । आज हमारी नदियों में प्रदूषण रुपी कालिया नाग फैलता ही जा रहा है। यह हमारा कर्तव्य है की हम नदियों को दूषित ना करे व ना ही किसी अन्य को करने दें ।

(ङ)

पांडवों द्वारा द्रौपदी को दांव पर लगाने पर व दुशाशन द्वारा द्रौपदी के चीरहरण जैसे दुष्कृत्य को किये जाने पर जब द्रौपदी ने स्वयं की रक्षा हेतु श्री कृष्ण का आह्वान किया तो श्री कृष्ण ने उनके सम्मान की रक्षा कर अपना पुरुष कर्तव्य निभाया । स्त्री का सम्मान प्रत्येक पुरुष का परमोधर्म व् कर्तव्य होता है। वह ना सिर्फ अपने परिवार की स्त्री , बहन, बेटी की रक्षा करे बल्कि समाज की अन्य सभी स्त्रियों का सम्मान व् रक्षा की भी जिम्मेदारी ले ।

(च)

श्री कृष्ण व् सुदामा जी की मित्रता; मित्रता का सर्वोच्च उदारहण है । बालवस्था के दो मित्र, एक द्वारकाधीश श्री कृष्ण व एक गरीब ब्राम्हण सुदामा । जब सुदामा जी अपनी पत्नी के कहने पर श्री कृष्ण से मिलने द्वारका नगरी उनके समक्ष पहुंचे तब सुदामा के समक्ष कृष्ण द्वारका के राजा बल्कि बचपन के मित्र स्वरूप उनसे मिले। कृष्ण ने बड़े ही स्नेह से अपने बचपन के मित्र सुदामा को गले से लगा लिया । यही होती है मित्रता; ना कोई ऊंच नीच, ना कोई भेदभाव मित्र तो बस केवल मित्र होता है ।

(छ)

जब श्री कृष्ण जी पांडवो की तरफ से संधि का सन्देश लेकर कौरवों के समक्ष पहुंचे तब वह विदुरजी के यहाँ ठहरे । विदुर जी कौरव सेना के सेना पति थे ।विदुरानी ने जलपान हेतु श्री कृष्ण के समक्ष फल व् भोजन प्रस्तुत किया एवं विदुरानी श्री कृष्ण की भक्ति व् प्रेम में इतनी लीन हो गयीं की उन्हें सुध ही ना रही की वह केले की छिलके श्री कृष्ण को खाने को दे रही हैं और केले के गूदे ज़मीन पर फेंक रही है। प्रभु श्री कृष्ण भी उसी प्रेमभाव से उन केले के छिलको को खाये जा रहे हैं । यह श्रद्धा भाव, अपार भक्ति का उदारहण है अतः हमे भी लोगों की भावनाओ का सम्मान करना चाहिए । प्रेम से दिया हुआ एक फूल भी कीमती उपहार से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ।

(ज)

जब दुर्योधन व् अर्जुन दोनों ही श्री कृष्ण से युद्ध में सहायता मांगने पहुंचे तब श्री कृष्णा सो रहे थे । दुर्योधन पहले आये व् कृष्ण जी के सिरहाने बैठ गए, जब अर्जुन आये तब वह श्री कृष्ण जी को सर्वोच्च मानकर उनके चरणों के निकट बैठ गए । जब श्री कृष्ण जी नींद से जागे तब उन्होंने अर्जुन जी को पहले बोलने का मौका दिया तब दुर्योधन ने कहा की पहले तो मैं आया था। दुर्योधन की बात सुन तब श्री कृष्ण ने कहा परन्तु मैंने तो पहले अर्जुन को देखा है । इसलिए पहले अपनी बात अर्जुन ही रखेंगे । यंहा श्री कृष्ण हमे टेढ़े व्यक्तियों से कैसे निपटा जाए व् हर परिस्थिति में सही का साथ दिया जाय बताते हैं। कभी कभी एक छोटा सा तर्क भी समस्या का हल दे देता है ।

(झ)

श्री कृष्ण ने सदैव सत्य व् धर्म का साथ दिया है व अधर्म का नाश किया । कौरवों ने पांडवों को साम्राज्य का आधा हिस्सा नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे । दुर्योधन सारी संम्पत्ति स्वम् ही हड़पना चाहता था । कृष्ण ने पांडवों का पक्ष लिया और हर तरह से उनका उत्थान किया । अपनी राजनीतिक रणनीतियों द्वारा श्री कृष्ण ने पांडवों को हर तरह से उनका अधिकार वापस दिलाने में मदद की । पांडव श्री कृष्ण पर पूर्ण विश्वाश करते थे और जब भी कोई विषम स्थिति उत्पन्न होती तो उन्होंने श्री कृष्ण की शरण ली । श्री कृष्ण ने भी सदैव ही पांडवो का साथ दिया, धर्म का साथ दिया जब भी जरूरत पड़ी, उन्हें रास्ता दिखाया, उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराया, उन्हें अधिकार के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया ।

(ञ)

कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवो के बीच हो रहे युद्ध में पांडवो के समक्ष उनके सवयं के रिश्ते-नाते उपस्थित थे। पांडवों को अपने ही भाई बंधुओ से युद्ध करना था अपने ही बड़ो पर उन्हें कर्कश तीर भेदने थे । ऐसे परिस्थिति देख अर्जुन बड़े ही धर्मसंकट में फंस गए और युद्ध करने से इंकार कर दिया । तब श्री कृष्ण युद्ध में अर्जुन का सारथी बनकर उनका मार्गदर्शन किया व् मनुष्य जीवन का अस्तित्व समझाया । धर्म की रक्षा हेतु सदैव ही सत्य का साथ देना ही मनुष्य जीवन का परम कर्तव्य है। अर्जुन जब कृष्ण के जागरूक करने पर भी युद्ध न करने पर कायम रहे तब कृष्ण ने अपनी माया से समय को रोक दिया और अपने दिव्य दैविक रूप का दर्शन कराकर उन्हें गीता उपदेश दिया। गीता उपदेशों में निहित बातें सुनकर अर्जुन अंततः युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं।

Shri-Krishna-Geeta-Updesha
  • मनुष्य शरीर भरम मात्र है आत्मा नश्वर है इसे ना कोई मार सकता है ना ही पैदा कर सकता है। न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो; यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जायेगा। केवल आत्मा स्थिर है।
  • जो होता है वह अच्छे के लिए होता है। जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा । तुम भूत का पश्चाताप न करो, भविष्य की चिन्ता न करो । वर्तमान चल रहा है, वर्तमान में अपने कर्तव्य का पालन करना ही मनुष्य का परम् धर्म है ।
  • जो आज तुम्हारा है वो कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा । तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है । सिर्फ कर्म करना मनुष्य के वश में है, जैसे मनुष्य के कर्म होंगे फल भी उसके अनुरूप प्राप्त होगा। तो फल की चिंता करना व्यर्थ है, मनुष्य के लिए उसका कर्म ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी है ।
  • परिवर्तन संसार का नियम है । एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो सकते हो । मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया आदि सब मन से मिटा दो। फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो ।
  • तुम्हारा क्या है जो तुम रोते हो । तुम क्या लाए थे, जो तुम खो दोगे, तुमने क्या पैदा किया हैं, जो नाश हो जाएगा। न तुम कुछ लेकर आए हो, जो लिया यहीं से लिया और जो दिया यहीं पर दिया । जो भी तुमको मिला ईश्वर से मिला । ईश्वर के प्रति पूर्णरूप से समर्मण ही मनुष्य को सुख व् शांति प्रदान करेगा व मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा ।

इस तरह श्री कृष्ण ने गीता के उपदेश के जरिये मनुष्य को अपने जीवन के सत्य का बोध कराया । वास्तव में हमारे प्रत्येक दुःख का कारण हमारे कर्म ही हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति व समर्पण ही एक मात्र ऐसा मार्ग है जिससे मनुष्य सत्य को पहचान सकता हैं । आज का मानव सभी रूपों में बहुत ही अलग है सब उसका है और सब उसने किया है, वह सर्वोपरि है, इसी सोच के साथ वह जीवन व्यतीत करता है जो केवल एक भ्रम है । यही उसके दुःखों का एक मात्र कारण हैं ।

अंत में आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की ढेरों शुभकामनायें ।

जय श्री कृष्ण।

लेखिका:
रचना शर्मा