गुरु शिष्य संबंध बनाम शिक्षक छात्र संबंध
किसी भी व्यक्ति के जीवन में शिक्षक का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान होता है। औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक जीवन में भी व्यक्ति को कहीं न कहीं सीखने की आवश्यकता होती है। विद्यालय में हम जो शिक्षा प्राप्त करते हैं, वो हमारी औपचारिक शिक्षा होती है। परंतु, व्यक्तिगत जीवन में भी अनेक अवसरों पर अपने कार्य, व्यवहार, अध्यात्मिक जीवन समेत जीवन के विविध व्यावहारिक पक्षों में भी कोई न कोई शिक्षक के रूप में हमारा मार्गदर्शन करता रहता है। ‘शिक्षक’ शब्द का महत्व बहुत बड़ा है, जिसमें श्रद्धा की आवश्यकता होती है। इसलिए जीवन के किसी भी पक्ष में शिक्षक के साथ हमारे सम्बन्ध हमेशा अधिकार और कर्तव्य पर आधारित होते हैं, जो परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक अच्छी भावना के साथ समाज में अधिकार और कर्तव्य का अनुपालन हो तथा ऐसा वातावरण बने, जिसमें सभी शिक्षक समाज में शिक्षा और ज्ञान प्रसार के वाहक बन सकें।
ज्ञातव्य है कि आम बोल चाल की भाषा में ‘गुरू’ तथा ‘शिक्षक’ शब्द को समानार्थी माना जाता है। परंतु वास्तव में काफी अंतर है; गुरु का शाब्दिक अर्थ है हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक नेता या मार्गदर्शक। जबकि शिक्षक Teacher का हिन्दी अनुवाद है जो अपने Students (छात्रों) को भौतिक शिक्षा देता है।
भारतवर्ष में युगों से गुरु और शिष्य की परंपरा है जो बदस्तूर आज भी जारी है। गुरु तथा शिष्य का रिश्ता आस्था, श्रद्धा व विश्वास पर आधारित है। जबकि शिक्षक तथा छात्र के बीच औपचारिक होता है। गुरु का दरवाजा सबके लिए खुला रहता है, यहाँ अनिवार्य शर्त केवल गुरु का आदेश पालन होता है। जबकि शिक्षक का दरवाजा छात्र विशेष के लिए खुला रहता है अर्थात आर्थिक तथा शैक्षणिक योग्यता के आधार पर प्रवेश दिया जाता है। यहां अनिवार्य शर्त अर्थ होता है।
यहां समस्या है कि हम गुरु तथा शिक्षक को समान मान बैठते हैं तथा शिक्षक से गुरु तरह व्यवहार की उम्मीद करते हैं जो गलत है। भौतिक शिक्षा एक व्यवसाय है तथा शिक्षक एक व्यापारी है। इनसे सद्गुरु की तरह व्यवहार की उम्मीद बेईमानी है तथा इनके द्वारा शिक्षित छात्रों से अनुशासन का उम्मीद भी बेईमानी ही है। जब भी छात्र उद्दंडता, अनुशासन हीनता, असद्व्याहवार आदि का प्रदर्शन करता है तो हम छात्रों के साथ साथ शिक्षक तथा माता पिता भी को कोसते हैं। जबकि वास्तव में न इसके लिए छात्र जिम्मेवार हैं न ही शिक्षक, बल्कि इसके लिए अभिभावक ही जिम्मेवार होते हैं।
हम अपने बच्चे को शिक्षा केवल सरकारी नौकरी, अच्छा व्यापारी, उद्योगपति अभियंता, डायरेक्टर आदि बनने के लिए दिलाते हैं कि न की एक अच्छा मानव बनने के लिए। परिणाम स्वरूप हम बच्चे का दाखिला वैसे संस्थान में दिलाते हैं जहाँ उन्हें अच्छी भौतिक शिक्षा मिले न की आदर्श शिक्षा। अब आप ही बताइए जो व्यक्ति स्वयं ही भौतिक शिक्षा प्राप्त किया है वह व्यक्ति आपके बच्चे को कहाँ से आदर्श शिक्षा देगा और आप चाहते भी नहीं। हमारे समाज में भौतिक शिक्षा प्राप्त किए व्यक्ति को उच्चतम दर्जा प्राप्त है और वह हमारा आदर्श भी है।
अब जब हमारे बच्चे हम पर जूता लेकर दौड़ते हैं तब हमें अपनी गलती का एहसास होता है। यही कारण है कि आज उच्च तथा उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे मां बाप को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं या स्वयं वृद्ध घर त्याग कर चले जाते हैं। आज के युवा भोग विलासिता के चरम पर हैं जिसका परिणाम पर्यावरण प्रदूषण, परिवारिक प्रदुषण, सामाजिक प्रदुषण, नैतिक प्रदुषण, धार्मिक प्रदुषण, बालपन प्रदुषण, इत्यादि हैं।
हमें चाहिए था कि बच्चों को भौतिक शिक्षा के साथ-साथ आदर्श शिक्षा भी दिया जाए। भौतिकता के साथ-साथ हमें आध्यात्मिकता को भी अपनाना चाहिए ताकि हमारे जीवन में संतुलन बना रहे। जब हम ऐसा करेंगे तो हमारे समाज में संतुलन होगा परिणाम स्वरूप उपरोक्त प्रदुषण नहीं उत्पन्न होगा।
लेखक:
दशरथ यादव