बूढ़ा बचपन – हिंदी कविता

देश में बढ़ता पूंजीवाद आज हमें इसकदर मजबूर कर चुका है कि हम घर, गाँव अथवा अपने समाज से लगातार दूऱ होते जा रहे हैं। पैसा जीवन का अभिन्न अंग बन गया है जिसको पाने की होड़ सबमें है। माता-पिता की बढ़ती व्यस्थता और बड़े बुजुर्गों से दूर होते बच्चे एक तरह के मानसिक अवसाद में जी रहे हैं। पठन-पाठन की बढ़ती जिम्मेदारी, खान-पान की कमजोरी, घटते खेलकूद के मैदान, लुप्त होता कथा-कहानीयों का प्रचलन व् टी वी धारावाहिक इत्यादि नें बच्चों को एकांत में जीने को विवश कर दिया है जिसकी वजह से आज वे सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पर ही अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। मैं रवि प्रकाश शर्मा अपनी कविता “बूढ़ा बचपन” के माध्यम से बच्चों की मौजूदा स्थिति को दर्शाने का प्रयास कर रहा हूँ।

 

भारत बदला हम बदले और बदला हमारा बचपन ;
आधुनिकता के मोहपाश में ;
हमें मिला एक बूढा बचपन !!

भोर उठो, बिस्तरा छोड़ो ;
आँखें मलते स्कूल को दौड़ो !!

विद्या का है बोझ बहुत ;
बस्ते में है मोटी किताबें !
पाँच साल की उम्र के बच्चे ;
अपने कंधों पर भार उठाते !!

हर माँ बाप की यही अभिलाषा ;
बच्चा बने डॉक्टर, इंजीनियर !
कोचिंग, टयूशन की अतिरिक्त मार से ;
करते अपने बच्चों का शोषण !!

अव्वल आना है सबको ;
कोई विषय न रह जाए खाली !
इंग्लिश, मैथ, फिजिक्स, केमिस्ट्री में ;
नंबर न आये तो देंगे गाली !!

कहाँ गयीं वो गर्मी की छुट्टी ;
कहाँ गए वो उनके खेल !
पूरा करते होम-वर्क वे अपना ;
घर बन गया उनका जेल !!

दूर्शन हो गया दूर की बात ;
अब अनगिनत हैं चैनल साथ !
किसपर देखें छुट्टी-छुट्टी ;
चंद्रकांता, विक्रम बेताल !!

दादा-नानी की कहानी ;
हो गयी अनसुनी-अनजानी !
कंप्यूटर, मोबाइल के आते ही ;
खो गई सभ्यता पुरानी !!

रोज बनती ऊँची इमारतें ;
जिनसे घटते मैदानी भाग !
ख़त्म हुआ वह खेल सारा ;
जिसमें बच्चे दौड़ते थे साथ !!

गिल्ली-डंडे, लट्टू, कंचे ;
पिट्ठू की गेंद और लुक्का-छुप्पी !
बंटी, बबली, निधि, सुरेश ;
नहीं रहीं वो धक्का-मुक्की !!

सारे बच्चे हो गए बूढ़े ;
नज़र का चश्मा, हड्डियां कमज़ोर !
थक गया फुर्तीला बचपन ;
थम गया गलियों का शोर !!

भारत बदला हम बदले और बदला हमारा बचपन ;
आधुनिकता के मोहपाश में ;
हमें मिला एक बूढा बचपन !!

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा