देखो नव संवत्सर है आया – हिन्दी कविता
देखो नव संवत्सर है आया, देखो नव संवत्सर है आया।
अपने संग ये कई फुहारें कुहरे की है लाया।।
बच्चे खुश हैं, देख धुंध कुहरे की ये कैसी ?
पत्नी बोली ये धुंध नही, ये है सुगंध कुहरे की।
आपस में यूँ बाते करते जब आवाज़ है आई
मैंने भी बिस्तर पर नीचे से आवाज़ लगाई।।
नव संवत्सर आया बेटा, नव संवत्सर है आया।
ये सुन बेटी भूल गई सब, दौड़ी – भागी आई
और लिपट कर मेरे तन से दी है आज बधाई।
पत्नी ने भी हाँथ बढ़ा कर मेरा दामन थामा
और कही उठ जाओ सजना, नव संवत्सर है आया।।
देखो-देखो, उठो पलंग से, नव संवत्सर है आया।
ये सुगंध कुहरे की ही है, देखो और बताओ
तेरा बेटा धुंध कह रहा, आज इसे समझाओ।
देखो नव संवत्सर है आया, देखो नव संवत्सर है आया।
अपने संग ये कई फुहारें कुहरे की है लाया।।
बच्चे खुश हैं, देख धुंध कुहरे की ये कैसी ?
मैंने बोला, बेटा मेरे, धुंध नही ये कुहरा है
ये कुछ और नही बेटा, ईश्वर का एक पहरा है।
उसने पूछा कैसे पापा, आज मुझे बतलाओ
ये धुंध नही ये कुहरा है तुम आज मुझे समझाओ।।
मैंने बोला बेटा मेरे, सुनो ये मेरी बातें
कुछ दिन पहले, सूरज चाचा चमके थे गर्मी में
उस गर्मी से, पानी की बूंदें उठ गई थीं इस नभ में।
ऊपर से ईश्वर ने सोंचा, इनकी क्या आवश्यकता
भेजो इनको जग में, इनकी है, वहीं आवश्यकता।।
इस दुविधा में, बूंदों ने सोंचा, मैं त्रिशंकु बन जाऊं
और घने कुहरे के ढंग से, पहरा क्यु न लगाऊ।।
देखो नव संवत्सर है आया, देखो नव संवत्सर है आया
अपने संग ये कई फुहारें कुहरे की है लाया।।
बच्चे खुश हैं, देख धुंध कुहरे की ये कैसी?
मैं बोला बेटा मेरे तुम इस धुंधली दुनिया को देखो
कुहरे के ही रंग में रंगी, इस धुंधली दुनिया को देखो।
इस धुंधले पन में भी तुम, अपनो के रुख को देखो।।
उन्हें आज पहचानो, उनके रंग को आज यूँ जानो।
कुछ लोग इसी धुंधली दुनिया मे, दिखते अपने साथ हैं
साथ दिखा कर भी वो, तोड़ते अपनो के जज़्बात हैं।।
देखो नव संवत्सर है आया, देखो नव संवत्सर है आया
अपने संग ये कई फुहारें कुहरे की है लाया।।
बच्चे खुश हैं, देख धुंध कुहरे की ये कैसी ?
ये सुगंध फैली दुनिया में, चारो ओर ये कैसी ?
देखो नव संवत्सर है आया, देखो नव संवत्सर है आया
अपने संग ये कई फुहारें कुहरे की है लाया।।
लेखक:
मनोज मिश्र