हिंदी कविता – ख़्वाहिश

कविता शीर्षक – ख़्वाहिश

Khwahish-Hindi-Kavita-by-Sandeep-Nar

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
जो ख्याबों में तराशा है, या फिर इस के उल्ट।

क्या वह मुझे पहचान लेगा, या फिर मैं उसको,
भोलपन, बेख़बर, कही सहपाठियों की बातें।
उसको मेरी बचपन की, मिलने की बेताबी,
क्या उसे पता होगा, मैंने जो उसके बारे सुना है,
जो ख्याबों में तराशा है, या फिर इस के उल्ट।

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
मुझे लगे कृष्ण की तरह, शायद मैं उसको सुदामा,
शायद वह माने अपने आप को, मैं उसको भी मानू,

दोनों के चोट लगी हो, हौसला देते, एक दूसरे को कितना,
क्या वह मुझे पहचान लेगा, इस दुनियाबी भीड़ में से।
जा फूल फेंकेगा, मेरे तरफ, शमशद के उस मित्र की तरह,
कोई मार जाये,अगर चुग़ली, निजी स्वार्थ होगा, उसको कितना !

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
जो ख्याबों में तराशा है, या फिर इस के उल्ट।

सत्य की दासता सुनाई, किसी ने, किसी को, दे तुझे यह मशवरा,
शरमद, शमशद, शाह मन्सूर की कहानी सुनाकर, ईश्वर की होंद,
समझाई संतों ने, सन्दीप तुझे, अपने तख़्त के पास बिठाकर,
तूनें क्या जोड़ा, वह क्या जोड़ते, प्रत्यक्ष दिखाया, सामने बिठाकर।

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
जो ख्याबों में तराश है, या फिर इस के उल्ट।

हाँ, मैं भी, तू भी ‘अंश, उस ईश्वर की दुनिया का, जो खो जाता,
अपने आप को ‘सोचों में डालकर, ख़्याब देखता, किसी को अपना बनाकर,
क्या बुरा, क्या अच्छा, किसी को कहना, धोखे क्यों दूँ, मित्र बनाकर।

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
जो ख्याबों में तराशा है, या फिर इस के उल्ट।

बात-बात में कर जाता, वह हमारे राष्ट्र की बात,
अपनों और बाहर वालों की बात, लगे मुझे सूझवान वह भी,
इश्क में हारा लगता, जैसे पंजाब के नयनों में से हो ‘आँसू’ बहता,
कहते बात में वह मैं-मैं नहीं करता, हक-सच्च की हामी भरता,
अगर ‘नर’ अपने आप को ‘स्वार्थी’ न कहे, फिर ‘क्यों, कोई इसको पढ़ता।

मित्र है तू भी मेरा, तुझे मिलने आऊँगा,
वादा सा कर बैठा, क्या वह होगा, उस तरह का,
जो ख्याबों में तराशा है, या फिर इस के उल्ट।

जैसे बुला इज्जत करें, आपने मुरशद की, ऐसा कोई नाच-नचा, या फिर,
गुरू रविदास जी के अनुसार, एक धर्म का, संदेश लोगों तक तो लेकर जा।

संदीप का जोर कहाँ, रब्ब तक पहुँचने का, ऐसी ही जाता सूखा राग बजा।
संत गंगा दास का मैं बनकर दास, मैं सदियों के, आपने पाप आप लूँ धुआ,
बापू कुम्भ दास जी के अनुसार, बंदे तेरा क्या है यहां पर, ले रब्ब के घर में खाता बना।

मकसद मेरा यह, ये जहान को, रब्ब के नजदीक और, दूँ पहुँचा,
आजा तू भी हाथ मिला, कुछ तो कर जाएँ, दुनिया ऊपर, एकसाथ बदलाव।

लेखक:
संदीप कुमार नर