हिंदी कविता – राह किनारे चलता हूँ

कविता शीर्षक – राह किनारे चलता हूँ

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शाम को थके हारे, पीठ पर ऑफिस का बस्ता लादे
मैं अपने कदम बढ़ता हूँ, राह किनारे चलता हूँ ।

शिथिल शरीर, व्याकुल नयन
धैर्य रहित, अधीर मन
मैं स्वयं से बातें करता हूँ
राह किनारे चलता हूँ ।।

चलते-चलते कुछ दूर तलक, एक मोड़ नज़र आता है
सहसा मेरे अंतर्मन को, जाने क्या हो जाता है
पीठ पर लदा ऑफिस का बस्ता, स्कूल बैग बन जाता है
आँखों के सम्मुख दृश्य पटल पर, मेरा स्कूल नज़र आता है ।

काले जूते, नीली पैंट, सफ़ेद शर्ट पर लाल टाई
टन-टन गूँजती स्कूल की घंटी, चपरासी ने बजाई
धक्का-मुक्की, हंसी-ठिठोली, मास्टर जी की तीखी बोली
इधर गिरना, उधर उछलना, हर बात पे लड़ना-बिगड़ना
लो बंद हुई आज की पढ़ाई ।

फिर उठा एक चंचल शोर, बच्चे भागे घर की ओर
रस्ते में एक हीरा हलवाई, देता समोसे और मिठाई
करता वो बच्चों से प्यार, अक्सर देता हमें उधार ।

पास खड़ा एक चूरन वाला, रोज लगाता अपना ठेला
1 रुपये का काला चूरन, 1 रुपये में खट्टी ईमली
लेकर बच्चे हाथों पर, चाटते निकलें अपनी उंगली
आ गये घर की चौखट पर, धूल लपेटे कपड़ों पर
फेंक कर बस्ता जहां-तहां, चढ़ बैठे बिस्तर पर ।

आई अब संध्या की बेला, चले खेलने बैट-बल्ला
मोटू के है हाथ में लट्टू, छोटू के हाथ में कंचे
घुमड़-घुमड़ कर काले बादल, आसमान में जब वो घनकें
सूखी मिट्टी पर गिरती बूंदें, उनसे निकली खुशबू महके
बिजली के तानों पर, पेड़ पर बैठी चिड़िया चहके ।

स्कूल से निकले, कॉलेज में आये
यारों की मस्ती, चौक चौराहे, नई टोली नई संगत पाये
कॉलेज में करते धमाल, गुजरे दिन महीना साल ।

मुझे किसी ने आवाज़ लगायी
अरे, रास्ते से तो हटजा भाई
स्वप्न टूटता, आँख खोलता
देखता खुद मैं कहां हूँ
कहीं नहीं, बस उसी मोड़ पर खड़ा हूँ ।

पीठ का मैंने बस्ता टटोला, निकला वो ऑफिस का झोला
ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा
सुना है दिन के ख्वाब कभी पूरे नहीं होते
सुना है गुजरे वक़्त कभी वापस नहीं आते ।

दौर ख़त्म हो जाता है, बच्चा वयस्क बन जाता है
शाम को थके हारे, पीठ पर ऑफिस का बस्ता लादे
मैं अपने कदम बढ़ता हूँ, फिर राह किनारे चलता हूँ
मैं राह किनारे चलता हूँ ।।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा