पुराना घर

पिताजी गुजर गये यह खबर मिलते ही मुझसे रहा नहीं गया; एक तरफ दुःख के आंसू और ह्रदय की वेदना दूजी ओर माँ का खयाल। मन व्याकुल हो उठा था … मेरी मनः स्थिति देख पत्नी नें टोका – मैं तुम्हारी पीड़ा समझती हूँ आखिर मैं भी तो उस घर कि बहू हूँ और वो मेरे भी पिता थे। सुनो अनहोनी तो घट गई है पर अब यहाँ से चलने की तैयारी करो ; माँ जी को तो फ़ोन लगाना भी नहीं आता कैसे होंगी वो ??

पत्नी के मुख से बातें सुन मैं थोड़ा अपने ह्रदय को मजबूत कर पाया। मुझे बस जल्द अपने पुराने घर जाने कि धुन सवार थी ; आनन फानन में मैंने जहाज का टिकट बुक करवाया , किसी तरह हमें जल्दी अपने प्रदेश लौटना था। एयरपोर्ट निकलने की आपाधापी थी तभी … चाचाजी का फ़ोन आया। वे बोले – सुनो गुड्डू कल मंगल है भईया को प्रातः काल गंगा घाट पर ही मुखाग्नि देंगे; तुम बहु और बेटे को लेकर किसी तरह रात तक आ पहुंचो।

मैं बोलै – चाचा, माँ से बात करवाओ … वो बस सुन के फ़ोन काट दिए !! आखिर करते भी क्या !

हम सकुशल जहाज पर आ पहुंचे बैंगलोर से जहाज की कोई कमी नहीं है।

यात्रा पूरी हो चुकी थी … पत्नी ने कहा – देखिये आ गये हम। मन खो गया था मेरा पुरानी बातों में …. मैं सरपट दौड़ पड़ा।

एयरपोर्ट से फिर टैक्सी कर हम आ गए अपने “पुराने घर” …. पर मुझे सुध ना थी, फ़ौरन माँ से मिलना चाहता था .. बिना देरी मैं तपाक से पूछ पड़ा माँ कहाँ है ?? पर जाने कोई क्यों जवाब नहीं दे रहा था। मैंने फिर चाचा जी से पूछा माँ कहाँ है ? वो अपना सर नीचे झुका कर करुण स्वर में बोले …. गुड्डू – भईया कि आकस्मिक मृत्यु की पीड़ा भाभी सहन ना कर पायीं।

मैंने पूछा फिर ??? …! चाचा जी, गुड्डू – भाभी भी भईया के मृत्यु के कुछ छण बाद गुजर गयीं । यह सुन…  मैं अवाक सा रह गया, मेरे चारों तरफ सन्नाटा सा छा गया।

रात भर मानस पाठ की गूँज के बीच जीवन कि ये सबसे कठिन रात मैंने काटी। भोर होते ही समस्त रस्मों का सिलसिला शुरू हो गया; माँ और पिताजी के पार्थिव शरीर को लेकर हम आ पहुंचे गंगा किनारे जहाँ से दोनों ही पुण्य आत्माओं को हमेशा के लिए विदा करना था। मंगल का दिन, पर मेरे जीवन में सब अमंगल हो गया था। कुछ देर के बाद, माँ – पिता दोनों ही पंचतत्व में विलीन हो चुके थे .. वो सुन्दर शरीर जिसनें मेरा पालन पोषण किया अब राख में तब्दील हो चुका था।

भारी मन लिए हुये हम सभी वहां से विदा हुए । अपने पुराने घर के प्रांगण में प्रवेश करते ही मेरा मन और अधीर हो उठा । मेरे मन को भांप मेरी पत्नी नें भी मुझसे कुछ न कहते हुये बेटे के साथ अलग कमरे में जा पहुंची; शायद वो जानती थी कि इस समय मुझे एकांत की जरूरत है।

जीवन के पूरे 30 वर्षों के उपरांत मैं आज अपने पुराने घर में था। मैं कौन हूँ .. यह पुराना घर अच्छे से जानता था, लिहाजा ईंट और पत्थर का यह मकान जो कभी मिट्टी का भी था परन्तु पिताजी नें अपने जीवनकाल में इसे एक नया रूप दे दिया था। मेरा यह सुन्दर घर आज मुझे दुलार रहा था, वह सारे मंजर जो मैंने यहाँ माता पिता और अन्य बड़े बुजुर्गों संग बिताये मेरी आँखों के सामने अवतरित हो उठे थे। आज अपने अतीत कि पुनरावृत्ति करने को मन आतुर हो चुका था, मेरे मन की आतुरता कुछ इस प्रकार थी कि पुराने घर के हर कोने, दरवाजे, अलमारियां, खिड़कियां छूने को जी कर रहा था। पुराने घर का मुआइना करते जहाँ भी दृष्टपात होता, उस जगह पर गुजरा मेरा बचपन स्मृत हो उठता था। यूँ ही विचरण करते मैं माँ-पिताजी के कमरे में जा पहुंचा । कमरे में एक खूंटी जिसपर पिताजी का पुराना बैग टंगा हुआ था और साथ में उनका छाता भी। नजरें दौड़ायीं तो देखा माँ नें मेरे बचपन कि सारी फोटो छोटे-छोटे फ्रेम में कैद कर रखीं थीं; गजब की बात तो यह थी कि उसपर धूल का एक कण भी न था .. शायद वो रोज अपने हाथों से साफ करती थी। एकटक मैं उस कमरे में उपस्थित समस्त वस्तुओं को देख रहा था और कमरा भी मुझे आज बड़े प्यार से निहार रहा था; वह भी यह सोच रहा होगा कि मैं यहाँ कितने वर्षों के उपरांत आया हूँ।

सबके होंटों पर मुनव्वर हैं हमारे किस्से !
और हम अपनी कहानी भी नहीं जानते हैं !!

30 वर्ष पूर्व घटे किस्से पुनः ताजा हो उठे, मैं कुछ सोच में ही डूबा था कि अचानक चाचा जी पीछे आ खड़े हुए और बोले – गुड्डू क्या तुम फिर बैंगलोर जाओगे ? मैं चुप रहा … खामोश रहा … पाओं ज़मीन में गड़ चुके थे, मन में विचारों का प्रवाह थम चुका था; मैं कोई उत्तर देने कि स्थिति में नहीं था … बस निहारता जा रहा था अपना यह पुराना घर और माँ पिताजी का कमरा ।