सचिन बनेगा क्या ? खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब

खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब

सचिन बनेगा क्या ? “खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब” ये कहावत भारत जैसे विशाल देश में खासी प्रचलित है । क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और जब भी किसी किसान का बच्चा खेलने के बारे में सोचता भी था तो उसे इसी कहावत के आधार पर खेलने से रोक दिया जाता था । दूसरी तरफ पैसे की कमी के कारण उच्च शिक्षा ले पाना भी किसान के बच्चों के लिए मुश्किल था। जिससे के वो जान पाते की खेलो के माध्यम से भी जीवन में आगे बड़ा जा सकता है । जिस देश में क्रिकेट को धर्म के समान माना जाता हो , उस देश में खेलों के प्रति संघर्ष की बात थोड़ी अजीब लगती है। पर सच यही है आज भी भारत विश्व में खेल के नाम पर सिर्फ क्रिकेट के नाम से ही जाना जाता है। हलाकि कई और खेलो में भारत अब जाना जाने लगा है, चाहे वो बैडमिंटन हो , टेनिस , हॉकी या फिर कब्बडी। लेकिन एक अरब से ज्यादा वाली जनसंख्या वाले देश में कुछ ही खिलाडी हैं जिन्होंने अपना और देश का नाम रोशन किया है यही बात सोचने को मजबूर करती है की भारत जैसे विशाल देश खेल को खेल पाने के लिए इतना संघर्ष क्यों करना पड़ता है।

भारत का खेलो में पिछड़ने के कई कारण हो सकते हैं जैसे कि :

1- समाज की सोच

आज भी भारत में खेलों को उतनी वरीयता नहीं दी जाती जितनी देनी चाहिए। अगर कोई बच्चा खेलना चाहता है तो माता-पिता को समझना चाहिए कि सिर्फ पढाई से ही बच्चे का विकास नहीं हो सकता। पढाई के साथ उसे खेलों पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास हो सके फिर चाहे आस – पास के लोग कुछ भी कहें। वहीं भारत में एक मिथ ये भी है कि खेल से परिवार का भरण पोषण नहीं हो सकता इसलिए हर कोई अपने बच्चों को डॉक्टर, वकील, इंज़ीनियर बनाना ही पसंद करता है ; जिस कारण एक होनहार खिलाडी न चाहते हुए भी खेलों को छोड़ देता है । धोनी Untold Story फिल्म इस बात का उदाहरण है कि कैसे माँ बाप सिर्फ नौकरी की चाहत ही रखते हैं अपने बच्चे के लिए।

2- शिक्षा का आभाव व् जानकारी का आभाव

भारत में खेलों के प्रति शिक्षा का आभाव किसी से छुपा नहीं ; बस स्कूलों में खेल के नाम पर एक पीरियड रख दिया जाता है और काम ख़त्म। जबकि खेलों के प्रति स्कूलों की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को वो शिक्षा के साथ – साथ खेलों का भी जीवन में महत्व बतायें जिससे उनमें खेलों के प्रति रूचि पैदा हो। परन्तु भारत में इसकी कमी है, यहाँ तो बस खेलों के नाम पर खाना पूर्ति कर दी जाती है। माता पिता सिर्फ यही मान कर रह जाते हैं कि खेल से पेट नहीं भरता न ही भूखे पेट खेला जाता है। ज्यादातर खेलने वाले बच्चों के माँ – बाप को पता नहीं होता कि बच्चा खेल में आगे कैसे बढे । स्कूल लेवल से ही बच्चों को उनकी प्रतिभा के अनुसार खेल में डाल देना चाहिए ताकि उनके टेलेंट को और निखारा जा सके ; और आगे उसको मौके मिले स्टेट और नेशनल में अपना प्रदर्शन करने का। स्कूल से ही इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए, ताकि लोगों को भटकना न पड़े साथ ही साथ अभिभावक अपनी गाढ़ी कमाई कोचिंग के चक्कर काटने में न लुटायें।

3- सुविधाओं का न होना

देश में वक़्त – वक़्त पर खेलों को बढ़ावा देने के तो कई प्रोग्राम किये हैं पर उन्हें अंजाम तक पहुंचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जाते । भारत में अभी विश्व स्तर के मैदान और स्टेडियम की भारी कमी है; जो खिलाडी स्टेट लेवल पर खेलते हैं उन्हें सुविधायें पहुचानी होंगी। जब तक कोई खिलाडी नेशनल स्तर पर नहीं खेलता तब तक उसको कोई नहीं जानता । अगर भारत को तमाम खेलो में भी अपना नाम बनाना है तो उसके लिए जरुरी है की ग्राउंड लेवल से ही बच्चों को वो तमाम सुविधा और उपकरण मुहैया कराएं जाएं जिससे वो विश्व स्तर के खिलाडी बन सकें ।