आखिर क्यों जानलेवा है ये मछली ‘ब्लू व्हेल’ ?
रूस के एक स्टूडेंट द्वारा 4 साल पहले बनाया गया गेम दुनिया भर में खलबली मचा रहा है या यूँ कहें कि खौफ का पर्याय बन चुका है । वर्चुअल दुनिया में “ब्लू व्हेल गेम” या “ब्लू व्हेल चैलेंज” रूस से शुरू होकर ब्राजील, चीन, इटली, अर्जेंटीना आदि होते हुए यूरोपीय देशों में पहुंचा, फिर भारत में। केरल, मुंबई, बंगाल और मध्यप्रदेश में जब इस खेल के दुष्परिणाम सामने आए तो सरकार चौकन्नी हो गई। अफरा तफरी में तमाम सोशल साइटों से इसे हटाने का निर्देश जारी कर दिया। और वेब वर्ल्ड से इसके लिंक हटा दिए गए; हिंसक वीडियो गेम का एक बड़ा कारोबार आॅनलाइन और आॅफलाइन फैला पड़ा है, जिसे समझने की चुनौतियां हमारे सामने हैं ।
“ब्लू व्हेल गेम” का मनोविज्ञान अन्य हिंसक वीडियो गेम से अलग है। इसे मनोवैज्ञानिक अध्ययनों और प्रयोगों से समझने की कोशिश की जा सकती है। यह गेम टास्क या चुनौतियों को स्वीकार करने का है, जिसे पचास दिनों तक एक समझौते के तहत एडमिन और खिलाड़ी के बीच खेला जाता है। वर्चुअल दुनिया से जुड़े बच्चों की जिंदगी में यह आक्रांता की तरह प्रवेश करता है। इसके साम्राज्यवादी-आतताई स्वरूप पर समाजचिंतकों, मनोचिकित्सकों, अर्थशास्त्रियों आदि ने पहले ही काफी विचार किया है। वे खुदकुशी के इस खेल को लेकर आश्चर्यचकित हैं। अब तक करीब तीन सौ ज़िंदगियाँ निगल चुके इस खेल के रहस्य को समझना बाकी है। जांच से सिर्फ इतना अनुमान लगाया गया है कि इसमें फंसने वाले ज्यादातर बच्चे या तो अपनी जिंदगी से निराश हैं या फिर अकेलेपन का शिकार हैं।
रूस के मनोविज्ञान के छात्र फिलिप बुडकिन ने चार साल पहले इस खेल को बनाया था। तब उसने सोचा भी नहीं होगा कि बारह साल से अठाहरह साल के बच्चों को वह इस कदर अपने जाल में उलझा देगा कि मौत का मंजर पसरने लगेगा। स्कूल और कॉलेज के किशोरों में हिंसक, आक्रामक वीडियो गेम में रुझान पहले भी रहा है। वे रेसिंग और जानलेवा एक्सीडेंट का खेल खेलते रहे हैं, लेकिन यह खेल एंग्री वर्ड, चॉकिंग गेम, साइबरबुलिंग, पीयर प्रेशर, फायर चैलेंज, डेड स्पेश, हॉटलाइन मियामी, मैनहंट-2, पोस्टल, द पनिशर, डेथ रेस, गियर्स आॅफ वार जैसे हिंसक वीडियो गेम से भिन्न है। यह खेल फेसबुक, ट्विटर मैसेंजर आदि सोशल मीडिया के माध्यम से आपके पास आता है। “हैशटैग क्यूरेटर फाइंड मी” के रास्ते आप उसमें प्रवेश करते हैं। कई बच्चे ‘चलो आजमाते हैं’ के चक्कर में भी फंसे हैं। एडमिनिस्ट्रेटर के आमंत्रण से आप शुरू करते हैं, तब तक वह आपके बारे में काफी जानकारियां इकट्ठा कर लेता है और आपकी गतिविधियों पर निगाहें रखता है। फिर अपनी रचे व्यूह में फंसाता है।
वह तरह-तरह से चुनौतियां देता है। यह क्रम पचास दिनों तक चलता है। चुनौती स्वीकार करने में आपको पता ही नहीं चलता कि आप ब्लैकमेल हो रहे हैं। वह धीरे-धीरे इतना मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता चला जाता है कि आप एक ‘रोबोट’ बन कर रह जाते हैं। वह जैसा चाहता है आप वैसा करते हैं; वह आपको ब्लेड से हाथ काट कर ‘यस’ लिखो और ‘इमेज’ भेजो कहता है और आप करते हैं। सुबह चार बज कर बीस मिनट पर रोज उठने को कहता है। मनोविकृत संगीत सुनने के लिए कहना, जीवन की व्यर्थता से संबंधित संगीत सुनने के लिए बाध्य करना, पूरे दिन लगातार हॉरर वीडियो देखने का टास्क देना या उसके बताए लिंक से जुड़े रहना होता है। ऊंची बिल्डिंग या क्रेन के किनारे एक पैर पर खड़े होना, पुल के किनारे लटकना या खड़ा होने जैसे जोखिम भरे काम शामिल होते हैं। किसी से बात नहीं करना, अकेले घूमना अनिवार्य शर्त होती है। ऐसा न करने पर परिवार या खिलाड़ी को नुकसान पहुंचाने की धमकी दी जाती है।
खतरनाक गतिविधियों या खुद को नुकसान पहुंचाने वाले कार्यों को धीरे-धीरे तेज किया जाता है और प्रमाणित भी करना होता है। स्काइप आदि से दोनों के बीच संवाद भी होता रहता है। अंत में, हाथों पर सुई या ब्लेड से व्हेल मछली का चित्र बनाना और ‘खुदकुशी’ के लिए तैयार होना होता है। पचास दिनों तक खास यांत्रिक मन:स्थिति में होने और ब्लैकमेल की वजह से उसके लिए उन निर्देशों का पालन करना आसान हो जाता है जैसा एडमिनिस्ट्रेटर चाहता है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि इसके लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार हैं या क्यूरेटर। अमेरिकन सायकोलॉजिकल एसोसिएशन (एपीए) ने दो वर्ष पहले एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जोहिंसक/ हॉरर वीडियो देखने वाले बच्चों पर आधारित है। उसने माना कि इसके लिए परिवार और समाज दोनों जिम्मेदार हैं। कई बार बच्चे की परवरिश जिम्मेदार होती है, तो कई बार पारिवारिक हिंसा, अकेलापन और निराशा। स्कूल की परिस्थितियां और गरीबी भी जिम्मेदार होते हैं।
एक अध्ययन बताता है कि टीवी में हिंसक कार्यक्रम देख रहे बच्चे निष्क्रिय मुद्रा में होते हैं, जबकि वीडियो गेम खेल रहे बच्चे सक्रिय। जब वे सीधे प्रतिभागी होते हैं, तो इस बात का ध्यान रखते हैं कि सबसे खतरनाक दुश्मन कौन है, उसे पहले मारते हैं। गेम बढ़ाने के लिए जो प्वाइंट मिलता है वह भी उन्हें चौकस और आविष्ट रखता है। यह आपकी सक्रिय गतिशीलता, उत्तेजना, व्यवहार और व्यक्तित्व को निर्धारित करता है। हिंसक गतिविधियों और विजय प्राप्ति की भावनाएं आपमें खुशी भरती हैं। लेकिन टीवी में यह सब संभव नहीं है। आॅनलाइन खेले जाने वाले इस खेल में प्रतिभागियों की मन:स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
मनोविज्ञान के अध्ययन में परस्पर विरोधी निष्कर्ष भी मौजूद हैं। अरस्तू के सिद्धांत कैथार्सिस के हवाले से कई लोगों का मानना है कि खेल का यह हिंसक तरीका हिंसक-आक्रामकभावों का शमन करता है, इसलिए वीडियो गेम को दोष देने के बजाय उसे सकारात्मक तरीके से लिया जा सकता है। लेकिन एक सौ तीस अध्ययन इसे खारिज करते और मानते हैं कि वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों के व्यवहार, विचार और भावनाओं में उत्तेजना, आक्रामकता हिंसात्मक प्रवृत्ति पाई जाती है। उनका रक्तचाप और हृदय गति तेज होती है। उनमें दूसरों के प्रति सहानुभूति कम और सहायता करने वाली प्रवृत्ति में कमी देखी गई है। सामाजिकता की भावनाएं भी उन बच्चों में कुंद होती हैं। कई बार कहा जाता है कि अगर हिंसक वीडियो गेम से बच्चों में कायांतरण होने लगता, तो वे जल्द ही अपने व्यवहार में हिंसक और उत्तेजित लगते। समाज में हो रहे जनसंहार के लिए वे जिम्मेदार होते। कई बच्चे बड़े आराम से कहते हैं कि मैं गेम खेलता हूं, लेकिन कभी हिंसा नहीं की। उनका व्यवहार, प्रवृत्ति और आचरण सामान्य बच्चों की तरह ही है। वे अपने भाई-बहनों और स्कूल में भी सहपाठियों के साथ सामान्य व्यवहार करते हैं। चिकित्सीय दृष्टि कहती है कि बच्चे अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग तरह का व्यवहार करते हैं। मसलन, मां के साथ जो व्यवहार होता है वह पिता से भिन्न होता है। भाई-बहनों के साथ जो व्यवहार होता है वह सहपाठी से अलग। इसलिए जो व्यवहार आॅनलाइन होगा, वही आॅफलाइन ऐसा नहीं है। लेकिन ब्लू वेल गेम ने आॅनलाइन और आॅफलाइन व्यवहार को काफी हद तक समान कर दिया।
लेकिन अहिंसक खेल खेलने वाले और हिंसक खेल खेलने वाले के व्यवहार में अंतर होता है। हिंसक खेल खेलने वाले में प्रतिस्पर्धा, उत्तेजना, आक्रामकता, फ्रस्ट्रेशन और तनाव ज्यादा होता है। हिंसा के प्रति उनमें स्वीकृति अधिक होती है। पीड़ित के प्रति सहानुभूति में भी कमी होती है। यह सामान्य व्यवहार में भी देखा गया है कि अगर बच्चों के हाथ में हिंसक खिलौने हों तो वे हिंसक आवाजें निकालते हैं, लोगों को डराते हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि लगातार पचास दिनों तक एक खास मन:स्थिति में रहना और मनोविकृतियों का सामना करना, दुनिया के प्रति निरर्थकताबोध का होना खुदकुशी के लिए काफी हैं।